आखिर क्यों पितृ पक्ष को मानते हैं अशुभ, जब हमारे ही हैं तो क्यों करेंगे अमंगल?
आज पितृ विसर्जनी अमावस्या है. पितरों की विदाई का अंतिम दिन. पितृपक्ष की शुरुआत ऋषि नेमि ने की थी. पितृपक्ष एक संस्कृत यौगिक शब्द है
कौवा, कुत्ता, गाय और ब्राह्मण- पितृपक्ष के यही चार केंद्रीय तत्व हैं. इन चारों में कौवा बढ़ते शहरीकरण, बिगड़ते पर्यावरण से लुप्त प्रजाति की ओर है. इस पितृ पक्ष में तो वह दिखा ही नहीं. सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद कुत्ते नसबंदी के डर से भूमिगत हैं. गाय जो हमारी खेती और धर्म की धुरी थी, उसे उत्तर प्रदेश सरकार ने आवारा बना दिया है. ब्राह्मण, उसे आज की सामाजिक व्यवस्था में हाशिए पर ढकेलते-ढकेलते अब पितृपक्ष लायक ही छोड़ा गया है. चारों एक साथ नहीं मिल रहे हैं. फिर पितृपक्ष मने कैसे? इनके अंश का भोजन किसे दिया जाय? यह समस्या बड़ी है.
सवाल उठता है जो पितृ हमारे प्रिय हैं, हमारे कल्याण की चिंता करते हैं, वह अशुभ और अमंगल कैसे? पितृ पक्ष को अशुभ क्यों मानते हैं? मैनें खोजा, ढूंढा किसी शास्त्रीय ग्रंथों में इसे अशुभ नहीं माना गया है. न जाने क्यों और कैसे पितृपक्ष को हमारे कर्मकांडी पंडितों ने खराब, मनहूस और अशुभ बना दिया है. कई तरह की भ्रांतियां हैं. मसलन नए काम की शुरुआत नहीं हो सकती. शादी-विवाह, मुंडन, नामकरण, अन्नप्राशन, उपनयन या कोई शुभ काम नहीं हो सकता. लोग खरीद फरोख्त बंद कर देते हैं. बाजार ठहर जाता है. यहां तक कि नए कपड़े भी नहीं खरीदे और पहने जा सकते हैं. कुछ लोग तो यात्रा भी नहीं करते.
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